023 –
चंद चीज़ें
जो रोज़े
को बातिल कर देती
हैं वो
यह हैं :
(1) खाना
और पीना
(2) जिमाअ करना
(3)
इस्तेमना –
यानी इंसान
अपने साथ
या किसी दुसरे के
साथ जिमाअ के
अलावा ऐसा फेल करे जिसके नतीजे में मणि खारिज हो
(4)
खुदाए तआला
,
पैगम्बरे अकरम (सअवव)
और अइम्मा -ए- ताहेरीन (अस)
से कोई
झूटी बात मंसूब करना
(5) गुबार हलक तक पहुंचाना
(6) मशहूर कौल
की बिना पर पूरा
सर पानी में डुबाना
(7) अजाने
सुबह तक
जनाबत या हैज़ और निफासत की हालत में रहना
(8) किसी
सैय्याल चीज़
से हुकना (एनिमा) करना
(9)
कै
करना
इन मुब्तलात के
तफ्सीली अहकाम
(1)
खाना और पीना
024 - अगर रोजादार इस अम्र की जानिब मुतवज्जह होते ही की रोज़े से हैं कोई
चीज़ जान बूझ कर खाए या पिए तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है! क़तए नज़र इस
से की वो
चीज़ ऐसी हो जिसे उमूसन खाया या पीया जाता हो मसलन रोटी और पानी या ऐसी हो
जिसे
उमूसन खाया य पीया ना जाता हो मसलन मिटटी और दरख़्त की शीरा ख्वाह कम हो या
ज्यादा
हत्ता की अगर रोजादार मिस्वाक मुंह से निकाले और दुबारा मुंह में ले जाए और
उस की
तरी निगल ले तब भी रोज़ा बातिल हो जाता है सिवाए इस सूरत के की मिस्वाक की
तरी लुआबे
दहन में घुल मिल कर इस तरह ख़तम हो जाए की उसे बैरूनी तरी ना कहा जा सके
025 -
जब रोजादार खाना ख़ा रहा हो,
अगर उसे मालूम हो जाए की सुबह हो गयी है
तो ज़रूरी है की जो लुक्मः मुंह
में हो उसे उगल दे और
अगर जान बूझ कर वो लुक्मः
निगल ले
तो उसका रोज़ा बातिल है! और उस हुक्म के मुताबिक,
जिस का ज़िक्र बाद में होगा
उस पर कफ्फारा भी वाजिब है!
026 - अगर रोजादार गलती से कोई चीज़ ख़ा ले या पी ले तो उसका रोज़ा बातिल नहीं
होता
027 - जो इंजेक्शन उज़्व को बेहिस कर
देते हैं या किसी और मकसद के
लिए
इस्तेमाल होते हैं अगर रोज़ादार इन्हें
इस्तेमाल करे तो कोई हर्ज नहीं
लेकिन बेहतर यह
है की उन इंजेक्शनो से
परहेज़ किया जाए जो
दवा और
गिज़ा के
बजाये इस्तेमाल
होते हैं
028 - अगर रोज़ादार की दांतों के रेखों में फँसी हुई कोई चीज़ अमदन निगल ले तो
उसका रोज़ा बातिल हो जाता है
029 - जो शख्स रोज़ा रखना चाहता हो उस के लिए अजाने सुबह से पहले दांतों में
खिलाल ज़रूरी नहीं है लेकिन अगर उसे इल्म हो जाये की जो गिज़ा दांतों के
रेखों में
रह गयी है वह दिन के वक़्त पेट में चली जायेगी तो खिलाल करना ज़रूरी है!
030 - मुंह का पानी निगलने से रोज़ा बातिल नहीं होता ख्वाह तुर्शी वगैरा के
तसव्वुर से ही मुंह में पानी भर आया हो
031 -
सर और सीने का बलगम जब तक मुंह के अंदर वाले हिस्से तक ना पहुंचे उसे
निगलने में कोई हर्ज नहीं लेकिन अगर मुंह में आ जाए तो एहतियाते वाजिब है
की उसे
थूक दे
032 - अगर रोजादार को इतनी प्यास लगे की की उसे प्यास से मर जाने का खौफ हो
जाए या उसे नुकसान का अंदेशा हो या इतनी सख्ती उठानी पड़े जो उस के लिए ना
काबिले
बर्दाश्त हो तो इतना पानी पी सकता है की उन उमूर का खौफ ख़तम हो जाए लेकिन
उसका
रोज़ा बातिल हो जाएगा और अगर माहे रमज़ान हो तो एहतियाते लाजिम की बिना पर
ज़रूरी है
की उस से ज्यादा पानी ना पिए और दिन के बाकी हिस्से में वह काम करने से
परहेज़ करे
जिससे रोज़ा बातिल हो जाता है
033 - बच्चे या परिंदे को खिलाने के लिए गिज़ा का चबाना या गिज़ा का चखना और
इसी तरह के काम जिस में गिज़ा उमुमन हलक तक नहीं पहुँचती ख्वाह वह
इत्तेफकान हल्क़
तक पहुँच जाए तो रोज़े को बातिल नहीं करती,
लेकिन अगर इंसान शुरू से जानता हो की यह
गिज़ा हल्क़ तक पहुँच जायेगी तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है और ज़रूरी है
की उस की
कजा बजा लाये और कफ्फारा भी उस पर वाजिब है
034 -
इंसान (मामूली) नकाहत की वजह से रोज़ा नहीं छोड़ सकता,
लेकिन अगर नकाहत
इस हद तक हो की उमूमन बर्दाश्त ना हो सके तो फिर रोज़ा छोड़ने में कोई हर्ज
नहीं
(2)
जिमाअ
035 - जिमाअ
रोज़े को बातिल कर देता है ख्वाह उज़्वे तनासुल सुपारी
तक ही
दाखिल हो और मनी भी खारिज ना हो
036 -
अगर आलाए तनासुल सुपारी से कम दाखिल हो और मनी भी खारिज ना हो तो
रोज़ा बातिल नहीं होता लेकिन जिस शख्स की सुपारी कटी हुई हो अगर वह सुपारी
की मिकदार
से कमतर मिकदार दाखिल करे तो अगर यह कहा जाए की उसने हमबिस्तरी की है तो
उसका रोज़ा
बातिल
हो जाएगा
037 - अगर कोई शाल्ख्स आमदन जिमाअ का इरादा करे और फिर शक करे की सुपारी के
बराबर दाखिल हुआ था या नहीं तो एहतियाते लाजिम की बिना पर उस का रोज़ा बातिल
है और
ज़रूरी है की उस रोज़े की कजा बजा लाये लेकिन कफ्फारा वाजिब नहीं है
038 - अगर कोई शख्स भूल जाए की रोज़े से है और जिमाअ करे या उसे जिमाअ पर इस
तरह मजबूर किया जाए की उसका इख्तियार बाक़ी ना रहे तो उसका रोज़ा बातिल नहीं
होगा
अलबत्ता अगर जिमाअ की हालत में उसे याद आ जाए की रोज़े से है या मजबूरी ख़तम
हो जाए
तो ज़रूरी है की फ़ौरन तर्क करे और अगर ऐसा ना करे तो उसका रोज़ा बातिल है
(3)
इस्तेमना
039 - अगर
रोजादार इस्तेमना करे (इस्तेमना के मानी मसाइल संख्या 1571
में
बताये जा चुके हैं),
तो उसका रोज़ा बातिल है
040 - अगर
बे-इख्तियारी की
हालत में किसी की मनी खारिज हो जाए तो उसका रोज़ा
बातिल नहीं है
041 - अगरचे रोज़ादार को मालूम है की अगर दिन में सोयेगा तो उसे एहतिलाम हो
जाएगा यानी सोते में उसकी मनी खारिज हो जायेगी तो भी उसके लिए सोना जाएज़
है,
ख्वाह
ना सोने की वजह से उसे कोई तकलीफ न भी हो और उसे एहतिलाम हो जाए तो बी उसका
रोज़ा
बातिल नहीं होता है
042 - अगर रोज़ादार मनी खारिज होते वक़्त नींद से बेदार हो जाए तो उसपर यह
वाजिब नहीं की मनी को निकलने से रोके
043 - जिस रोज़ेदार को एहतिलाम हो गया हो तो वह पेशाब कर सकता है ख्वाह उसे
यह इल्म हो की पेशाब करने से बाक़ी मानदः मनी नाली से बाहर आ जायेगी
044 - जब रोज़ेदार को एहतिलाम हो जाए अगर उसे मालूम हो की मनी नाली में रह
गयी है
और वह गुसल से पहले पेशाब नहीं करेगा तो गुसल के बाद मनी उसके जिस्म से
खारिज होगी तो एहतियाते मुस्तहब यह है की गुसल से पहले पेशाब करे
045 - जो शख्स मनी निकालने के
इरादे से
छेड़ छाड़ और दिल्लगी करे
तो ख्वाह
मनी न भी निकले तो एहतियाते लाजिम की बिना पर ज़रूरी है की रोज़े को तमाम
करे और
उसकी क़ज़ा भी बजा लाये!
046 - अगर रोजादार मनी निकालने के इरादे के बगैर मिसाल के तौर पर अपनी बीवी
से छेड़ छाड़ और हंसी मजाक करे और उसे इत्मीनान हो की मनी खारिज नहीं होगी
अगरचे
इत्तेफाक़न मनी खारिज हो जाए
,
उसका रोज़ा सही है,
अलबत्ता उसे इत्मीनान ना हो तो उस
सूरत में जब मनी खारिज होगी तो उसका रोज़ा बातिल हो जाएगा
(4)
ख़ुदा व
रसूल पर बोहतान बाँधना
047 - अगर
रोज़ादार ज़बान से या लिख कर या इशारे से या किसी और तरीके से
अल्लाह तआला या रसूले अकरम
(सललल्लाहो इलैहे व
आलेही व
सल्लम) या आपके (बार हक़) जा
नशीनो में
से किसी से जान बूझ कर कोई झूठी बात
मंसूब करे तो अगरचे वह फ़ौरन कह दे
की
मैंने झूठा
कहा है
या तौबा कर
ले तब भी एहतियाते लाजिम की बिना पर
हजरत फातिमा ज़हरा (सल्वातुल्लाहे अलैहा) और
तमाम अम्बियाए मुरसलीन
(अस) और उन के
जा नशीनो से भी कोई झूठी बात
मंसूब करने का यही हुक्म है
048 - अगर (रोज़ादार) कोई ऐसी रिवायत नकल करना चाहे जिस के कतई होने की दलील न
हो और उस के बारे में उसे यह इल्म न हो की सच है की झूठ तो एहतियाते वाजिब
की बिना
पर ज़रूरी है की जिस शख्स से वह रिवायत हो या जिस किताब में लिखी देखी हो
उसका
हवाला दे!
049 - अगर किसी रिवायत के बारे में इख्तालाफ रखता हो की वह वाकई कौले खुदा या
कौले पैगम्बर (सललल्लाहो इलैहे व
आलेही व
सल्लम) है और उसे अल्लाह तआल़ा या
पैगम्बरे अकरम (सललल्लाहो इलैहे व
आलेही व
सल्लम) से मंसूब करे और बाद में मालूम हो
की निस्बत ठीक नहीं थी तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होगा!
050 - अगर रोज़ादार किसी चीज़ के बारे में यह जानते हुए की झूठ है उसे अल्लाह
तआल़ा और रसूले अकरम (सललल्लाहो इलैहे व
आलेही व
सल्लम) से मंसूब करे और बाद में
उसे पता चले की जो कुछ उसने कहा था वह दुरुस्त था तो एहतियाते लाजिम की
बिना पर
ज़रूरी है की रोज़े को तमाम करे और उसकी क़ज़ा भी बजा लाये
051 - अगर रोज़ादार किसी ऐसे झूठ को जो खुद रोज़ादार ने नहीं बल्कि किसी
दुसरे ना गढ़ा हो जान बूझ कर अल्लाह तआला या रसूले अकरम (सललल्लाहो इलैहे व
आलेही व
सल्लम) या आपके (बर हक़) जानशीनो से मंसूब कर दे तो एहतियाते लाजिम की बिना
पर उसका
रोज़ा बातिल हो जाएगा लेकिन अगर जिसने झूठ गढ़ा हो उसका कौल नकल करे तो कोई
हरज
नहीं!
052 - अगर रोज़ादार से सवाल किया जाए की किया रसूले मोहतषम (स:अ) ने ऐसा
फरमाया है
और वह अमदन जहाँ जवाब "नहीं"
देना चाहिए
वहां "इसबात" में दे और जहाँ
"इसबात"
में देना चाहिए वहां अमदन "नहीं" दे तो एहतियाते लाजिम की बिना पर उसका
रोज़ा बातिल हो जाता है!
053 - अगर
कोई शख्स अल्लाह तआला या रसूले अकरम (सललल्लाहो इलैहे व
आलेही व
सल्लम) का कौले दुरुस्त नक़ल करे और बाद में कहे की मैंने झूठ कहा है या
रात को कोई
झूठी बात उनसे मंसूब करे और दुसरे दिन जबकि रोज़ा रखा हुआ हो कहे की जो कुछ
मैंने
गुज़श्तः रात कहा ठा वह दुरुस्त है तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है लेकिन
अगर वह
रिवायत के (सही या
गलत होने के) बारे में बताये (तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता
है)!
(5)
ग़ुबार को हलक़ तक पहुंचाना
054 - एहतियाते
वाजिब की बिना पर कसीफ़ गुबार
का हलक़ तक पहुंचाना रोज़े को
बातिल कर देता है ख्वाह गुबार किसी ऐसी चीज़ का हो जिसका खाना
हलाल हो
मसलन आटा या
किसी ऐसी चीज़ का हो जिसका खाना
हराम हो मसलन मिट्टी
055 - अक़वा
यह है की गैरे कसीफ़
गुबार हलक़ तक पहुँचने से
रोज़ा बातिल हो
जाता है
056 -
अगर हवा की वजह से गुबार पैदा हो सुर इंसान
मुतवज्जह होने और एहतियात
कर सकने के
बावजूद एहतियात
ना करे और गुबार उसके हलक़ तक पहुँच जाए तो एहतियाते
वाजिब की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जाता है
057 - एहतियाते
वाजिब यह है की रोजादार सिगरेट और
तम्बाकू वगैरा
का धुआं भी
हलक़ तक ना पहुंचाए !
058 -
अगर इंसान एहतियात न करे और गुबार य धुआं वगैरा हलक़ में चला जाए
तो
अगर उसे यकीन य इत्मीनान
था की यह चीज़ें हलक़ में ना पहुंचेगी तो
उसका रोज़ा सही है
लेकिन अगर उसे गुमान था
की यह हलक़ तक नहीं पहुंचेगी तो बेहतर है की रोज़े की क़ज़ा
बजा लाये!
059 - अगर
कोई शख्स यह भूल जाए की रोज़े से है एहतियात ना करे या बे इख्तियार
गुबार
वगैरा उसके हलक़ तक पहुँच जाए तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता !
(6)
सर को पानी में डुबोना
060 - अगर रोज़ादार जान बूझ कर सारा सर
पानी में डुबो दे तो ख्वाह उस का
बाक़ी बदन पानी से बाहर रहे मशहूर कौल की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जाता
है लेकिन
बईद नहीं की ऐसा करना रोज़े को बातिल न करे ! अगरचे ऐसा करने में शदीद कराहत
है और
मुमकिन हो तो उससे एहतियात करना बेहतर है!
061 - अगर रोज़ादार अपने निस्फ सर को एक दफा और बक़ी निस्फ सर को दूसरी दफा
पानी में डुबोये तो उसका रोज़ा सही होने में कोई इश्काल नहीं है!
062 - अगर सारा सर पानी में डूब जाए तो ख्वाह कुछ बाल पानी से बाहर भी रह
जाएँ तो उसका हुक्म भी मसअला
1618
की तरह है!
063 - पानी के इलावा दूसरी सय्याल चीज़ों मसलन दूध में सर डुबोने से रोज़े को
कोई ज़रर नहीं पहुँचता और मुजाफ पानी में सर डुबोने का भी यही हुक्म है!
064 -
अगर रोज़ादार बे इख्तियार पानी में गिर जाए और उसका पूरा सर पानी में
डूब जाए य भूल जाए की रोज़े से है और सर पानी में डुबो ले तो उसक एरोज़े में
कोई
इश्काल
नहीं है!
065 - अगर कोई रोज़ादार यह ख्याल करते हुए अपने आपको पानी में गिरा दे की
उसका सर पानी में नहीं
डूबेगा लेकिन उसका पूरा सर पानी में डूब जाए तो उसके रोज़े
में बिलकुल इश्काल नहीं है!
066 - अगर कोई शख्स भूल जाए की रोज़े से है और सर पानी में डुबो दे तो अगर
पानी में डूबे हुए उसे याद आये की रोज़े से है तो बेहतर यह है की रोज़ादार
फ़ौरन अपना
सर पानी से बाहर निकाले और अगर ना निकाले तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होगा !
067 - अगर
कोई शख्स रोज़ादार के सर को ज़बरदस्ती पानी
में डुबो दे तो उसके
रोज़े में कोई इश्काल नहीं है लेकिन जबकि अभी वह पानी में है दूसरा शख्स
अपना हाथ
हटा ले तो बेहतर है की फ़ौरन अपना सर पानी से बाहर निकाल ले!
068 -
अगर रोज़ादार ग़ुस्ल की नियत से सर पानी में डुबो दे तो उस का रोज़ा और
ग़ुस्ल दोनों सही
हैं!
069 -
अगर कोई रोज़ादार किसी को डूबने से
बचाने की ख़ातिर सर को पानी में
डुबो दे ख्वाह उस शख्स तो बचाना वाजिब
ही क्यों ना हो एहतियाते मुस्तहब है की रोज़े
की क़ज़ा बजा लाये!
(7 )
अजाने सुबह तक जनाबत,
हैज़,
और निफासत की
हालत
में रहना
070 -
अगर जुनुब शख्स माहे
रमज़ानुल मुबारक में जान बूझ
कर अजाने
सुबह तक ग़ुस्ल ना करे तो
उसका रोज़ा बातिल है और जिस शख्स का वजीफा तय्मुम हो
और
जान बूझ कर तय्मुम न
करे तो उसका रोज़ा भी बातिल है और माहे रमज़ान की
क़ज़ा का हुक्म
भी यही है!
071 -
अगर जुनुब शख्स माहे रमज़ान के रोज़ों और उनकी क़ज़ा
के इलावा उन
वाजिब
रोज़ों में जिनका वक़्त माहे रमज़ान के रोज़ों की तरह मुअययन है जान बूझ कर
अजाने
सुबह तक ग़ुस्ल ना करे तो अजहर यह
है की उसका रोज़ा सही है!
072 -
अगर कोई शख्स माहे रमज़ानुल मुबारक की किसी रात में
जुनुब हो जाए तो
अगर वह अमदन ग़ुस्ल
न करे हत्ता की
वक़्त तंग हो
जाए तो ज़रूरी है
की तय्मुम करे और
रोज़ा रखे और एहतियाते मुस्तहब
यह है की उसकी क़ज़ा
भी बजा लाये!
073 -
अगर जुनुब शख्स माहे रमज़ान में ग़ुस्ल करना भूल जाए
और एक दिन के
बाद उसे याद आये तो
ज़रूरी है की उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे और अगर चंद दिनों के बाद
याद आये तो उतने दिनों के रोज़ों की क़ज़ा करे और अगर चंद दिनों के बाद याद
आये तो
उतने दिनों के रोज़ा की क़ज़ा करे जितने दिनों के बारे में उसे यक़ीन हो की
वह जुनुब
या मसलन अगर उसे यह इल्म न हो की तीन दिन जुनुब रहा था या चार दिन तो
ज़रूरी है की
तीन दिनों के रोजो की क़ज़ा करे!
074 -
अगर कोई ऐसा शख्स अपने आप को जुनुब कर ले जिसके पास माहे रमज़ान की रात
में ग़ुस्ल और तय्मुम में से किसी के लिए भी वक़्त न हो तो उसका रोज़ा
बातिल है और
उसपर क़ज़ा और कफ्फारा दोनों वाजिब है!
075 -
अगर रोज़ादार यह
जान्ने के
लिए जुस्तजू करे की उस के पास वक़्त है
या नहीं और गुमान करे की उसके पास ग़ुस्ल के लिए वक़्त है और अपने आप को
जुनुब कर
ले और बाद में उसे पता चले की वक़्त तंग था और तय्मुम करके रोज़ा रखे तो
एहतियाते
मुस्तहब की
बिना पर
ज़रूरी है की उस दिन के रोज़े की क़ज़ा
करे!
076 -
जो शख्स माहे रमज़ान की किसी रात को जुनुब हो
और
जानता हो की
अगर सोयेगा तो सुबह तक बेदार ना होगा,
उसे बगैर ग़ुस्ल किये न सोना चाहिए और अगर वह
ग़ुस्ल करने से पहले अपनी मर्जे से सो जाए और सुबह तक बेदार न हो तो उसका
रोज़ा
बातिल है और क़ज़ा और कफ्फारा दोनों उस पर वाजिब हैं!
077 -
जब जुनुब माहे रमज़ान की रात में सोकर जाग उठे तो
एहतियाते
वाजिब
यह है की अगर वह बेदार होने के बारे में मुतमइन हो तो ग़ुस्ल से पहले न
सोये
अगरचे इस बात का एह्तिमाल हो की अगर दुबारा सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले
बेदार
हो जाएगा!
078 -
अगर कोई शख्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और
यक़ीन रखता हो की अगर सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जाएगा और
उसका
मुसम्मम इरादा हो की बेदार होने के बाद ग़ुस्ल करेगा और इस इरादे के साथ सो
जाए और
अज़ान तक सोता रहे तो उसका रोज़ा सही है! और अगर कोई शख्स सुबह की अज़ान से
पहले बेदार
होने के बारे में मुतमइन हो तो उसके लिए भी यही हुक्म है!
079 -
अगर कोई शख्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और उसे इल्म
हो या एह्तिमाल हो की अगर सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जाएगा
और वह इस
बात से ग़ाफिल
हो की बेदार होने के बाद उस पर ग़ुस्ल करना ज़रूरी है तो उस सूरत
में जबकि वह
सो जाए और सुबह की अज़ान तक सोया रहे एहतियात की बिना पर उस पर क़ज़ा
वाजिब हो जाती है!
080 -
अगर कोई शख्स माहे रमज़ान में किसी रात में जुनुब हो और उसे
यक़ीन हो या एह्तिमाल इस बात का हो की अगर वह सो गया तो सुबह की अज़ान से
पहले बेदार
हो जाएगा और वह बेदार होने के बाद ग़ुस्ल न करना चाहता हो तो उस सूरत में
जबकि वह
सो जाए और बेदार न हो उस का रोज़ा बातिल है,
और क़ज़ा और कफ्फ़ारा उस के लिए लाजिम
है! और इसी तरह अगर बेदार होने के बाद उसे तरद्दुद हो की ग़ुस्ल करे या न
करे तो
एहतियाते लाजिम की बिना पर यही हुक्म है!
081 -
अगर जुनुब शख्स माहे रमज़ान की किसी रात में सोकर जाग उठे और
उसे यक़ीन हो या इस बात का एह्तिमाल हो की अगर दुबारा सो गया तो सुबह की
अज़ान से
पहले बेदार हो जाएगा और वोह मुसम्मम इरादा भी रखता हो की बेदार होने बाद के
ग़ुस्ल
करेगा और दुबारा सो जाए और अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है की बतौरे सज़ा
उस दिन का
रोज़ा क़ज़ा करे! और अगर दूसरी नींद से बेदार हो जाए और तीसरी दफा सो जाए और
सुबह की
अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है की उस दिन के रोज़े के क़ज़ा करे और
एहतियाते
मुस्तहब की बिना पर कफ्फ़ारा भी दे!
082 -
जब इंसान को नींद में एहतिलाम हो जाए तो पहली,
दूसरी और तीसरी
नींद से मुराद वह नींद है की इंसान (एहतिलाम से) जागने के बाद सोये लेकिन
वह नींद
जिसमे एहतिलाम हुआ पहली नींद में शुमार नहीं होती!
083 -
अगर किसी शख्स को दिन में एहतिलाम हो जाए तो फ़ौरन ग़ुस्ल करना वाजिब
नहीं!
084 -
अगर कोई शख्स माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान के बाद जागे और यह देखे की
उसे एहतिलाम हो गया है तो अगरचे उसे मालूम हो
की यह एहतिलाम अज़ान से पहले हुआ है,
उस का रोज़ा सही है!
085 -
जो शख्स रमज़ानुल मुबारक का क़ज़ा रोज़ा रखना चाहता हो और वह सुबह की
अज़ान तक जुनुब रहे तो अगर उसका इस हालत में रहना अमदन हो तो उस दिन का रोज़ा
नहीं
रख़ सकता और अगर अमदन नो हो तो
रोज़ा रख़ सकता है अगरचे एहतियात यह है की रोज़ा न
रखे
086 - जो शख्स रमज़ानुल मुबारक के क़ज़ा रोज़े रखना चाहता हो अगर वह सुबह की
अज़ान के बाद बेदार हो और देखे की उसे एहतिलाम हो गया है और जानता हो की यह
एहतिलाम
उसे सुबह की अज़ान से पहले हुआ है तो अक़वा की बिना पर उस दिन माहे रमज़ान के
रोज़े की
क़ज़ा की नियत से
रोज़ा रख़ सकता है!
087 -
अगर माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़ों के इलावा ऐसे वाजिब रोज़ों में की जिन
का वक़्त मुअय्यन नहीं है मसलन कफ्फारे के रोज़े में कोई शख्स अमदन अजाने
सुबह तक
जुनुब रहे तो अज़हर यह है की उसका रोज़ा सही है लेकिन बेहतर है की उस दिन के
अलावा किसी
दुसरे दिन का रोज़ा रखे!
088 -
अगर रमज़ान के रोज़ों में औरत
सुबह की अज़ान से पहले हैज़
या निफास
से
पाक हो जाए और
अमदन ग़ुस्ल
ना करे या
वक़्त तंग
होने की
सूरत में -
अगरचे उसके अख्त्यार
में हो और रमज़ान का रोज़ा हो
- तय्मुम न
करे तो उसका रोज़ा
बातिल
है और एहतियात की
बिना पर माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़े का भी यही हुक्म
है (यानी उस
का
रोज़ा बातिल है) और इन दो
के इलावा दीगर सूरतों में बातिल नहीं अगरचे अहवत यह है के
ग़ुस्ल करे! माहे रमज़ान में जिस औरत की शरई ज़िम्मेदारी हैज़
या निफास के ग़ुस्ल के
बदले तय्मुम
हो और इसी तरह एहतियात
की बिना पर रमज़ान की क़ज़ा
में अगर जान बूझ कर
अजाने सुबह से पहले तय्मुम न करे तो उस का रोज़ा बातिल है!
089 - अगर
कोई औरत
माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफास से
पाक हो जाए और ग़ुस्ल के लिए वक़्त
न हो तो ज़रूरी है की तय्मुम करे और सुबह की
अज़ान तक बेदार रहना ज़रूरी नहीं
है! जिस जुनुब शख्स
का वज़ीफ़ा तय्मुम हो उसके लिए
भी यही हुक्म
है!
090 -
अगर कोई औरत माहे रमज़ान में सुनाह की अज़ान के नज़दीक हैज़
या निफास से
पाक हो जाए और ग़ुस्ल या तय्मुम किसी के किये भी वक़्त बाकी न हो तो उस का
रोज़ा सही
है!
091 -
अगर कोई औरत सुबह की अज़ान के बाद हैज़
य निफास के
खून से पाक हो जाए या
दिन में उसे हैज़ या निफास का खून आ जाए
तो अगरचे यह खून मगरिब के क़रीब ही क्यों
न आये,
उसका रोज़ा बातिल है!
092 -
अगर औरत हैज़ या निफास का ग़ुस्ल करना भूल
जाए और उसे एक या
कई दिन
के बाद
याद आये तो जो रोज़े उसने रखे हैं वोह
सही हैं!
093 -
अगर औरत माहे रमज़ानुल मुबारक में सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या
निफास से पाक हो जाए और ग़ुस्ल करने में कोताही करे और सुबह की अज़ान तक
ग़ुस्ल न
करे और वक़्त तंग होने की सूरत में तय्मुम भी ना करे तो उसका रोज़ा बातिल है,
लेकिन अगर
कोताही न करे मसलन मुन्तजिर
हो की ज़नाना हम्माम मुयस्सर आ
जाए ख्वाह उस
मुद्द्त में वह तीन दफः सोये और
सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और तय्मुम करने में
भी कोताही न करे तो उसका रोज़ा सही है!
094 -
जो औरत इस्तिहाज़ाये कसीरः की
हालत में
हो अगर वह अपने गूसलों
को उस
तफसील के साथ न
बजा लाये जिसका
ज़िक्र मसअला 402
में किया गया है
तो उसका रोज़ा सही
है! ऐसे
ही इस्तिहाज़ाये मुत्तवाससित में अगरचे औरत ग़ुस्ल भी न
करे,
उसका रोज़ा सही
है!
095 -
जिस शख्स ने मैय्यत को
मस किया है यानी अपने बदन का कोई हिस्सा मैय्यत
के बदन से छुआ हो
वह गुसले मैय्यत के बगैर रोज़ा रख़ सकता है
और अगर रोज़े की हालत
में भी मैय्यत को मस करे तो उस का रोज़ा बातिल नहीं होता है!
(8)
हुक्ना लेना
1654 -
सैय्याल चीज़
से हुकना (एनिमा)
अगरचे ब अमरे मजबूरी और
इलाज की गरज से
लिया जाए,
रोज़े को बातिल कर देता है!
(9 )
कै करना
096 -
अगर रोज़ादार जान
बूझ कर कै
करे तो अगरचे वह बिमारी की वजह से ऐसा करने
पर मजबूर हो तो उसका रोज़ा बातिल
हो जाता है
लेकिन अगर सहवन या
बे इख्तियार हो कर
कै करे तो कोई हर्ज नहीं है!
097 -
अगर कोई शख्स रात को
ऐसी चीज़
ख़ा ले जिसके बारे में मालूम हो की उस
के खाने की वजह से दिन में बे इख्तियार कै आयेगी तो एहतियाते मुस्तहब यह है
की उस
दिन का रोज़ा क़ज़ा करे!
098 - अगर
रोज़ादार कै कर सकता हो और ऐसा करना उस के लिए मुज़ीर और
तकलीफ का
बाइस न हो तो बेहतर यह है की कै को रोके!
099 -
अगर रोज़ादार के हलक़ में
मकखी चली जाए
य चुनांचे वह
इस हद तक
अंदर चली गयी हो की उसके नीचे ले
जाने को
निगलना न
कहा जाए तो ज़रूरी नहीं की उसे
बाहर निकाला जाए और उसका रोज़ा सही है लेकिन अगर मकखी काफी हद तक अंदर न गयी
हो तो
ज़रूरी है की बाहर निकाले अगरचे उसको कै करके ही निकालना पड़े मगर यह है की
कै करने
में रोजादार को ज़रूर और तकलीफ न हो और अगर वह कै न करे और उसे निगल ले तो
उसका
रोज़ा बातिल हो जाएगा!
100-
अगर रोज़ादार सहवन कोई चीज़ निगल ले और उसके पेट में पहुँचने से पहले
उसे याद आ जाए की रोज़े से है तो उस चीज़ का निकालना लाजिमी नहीं
और उसका रोज़ा सही
है!
101 -
अगर किसी
रोज़ादार
को यक़ीन हो की डकार लेने की वजह से कोई चीज़ उसके
हलक़ से बाहर आ जायेगी तो एहतियात की बिना पर उसे जान बूझ कर डकार नहीं
लेनी चाहिए,
लेकिन उसे यक़ीन न हो तो कोई हर्ज नहीं!
102 -
अगर रोज़ादार डकार ले और कोई चीज़ उसके मुंह या हलक़ में आ जाए तो
ज़रूरी है की उसे उगल दे और अगर वह चीज़ बे इख्तियार पेट में चली जाए तो
उसका रोज़ा
सही है!
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